केदारनाथ उपचुनावः हरक के मन में हां, जुबां पर ना
चुनावी राजनीति से लगातार बाहर हो रहे रावत के लिए केदारनाथ में अवसर

जनादेश एक्सप्रेस/देहरादून
उत्तराखंड के कद्दावर नेता डा हरक सिंह रावत के सितारे इन दिनों भले ही गर्दिश में हों, लेकिन वह सियासत में कब क्या कर बैठे, कोई नहीं जानता। वो प्रदेश के चुनिंदा ऐसे नेताओं में शामिल रहे हैं, जिन्होंने अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों में जाकर वहां के हिसाब से ही चुनाव लड़ा और फतह हासिल की। बार-बार दल बदलने से उनकी विश्वसनीयता पर सवाल भी उठे हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उत्तराखंड की राजनीति में उनका कोई जवाब नहीं है। केदारनाथ उपचुनाव की रोशनी में हरक का नाम फिर से सुर्खियों में है। वह वहां से चुनाव लडे़ंगे या नहीं, यह तय नहीं है, लेकिन उनकी सक्रियता ने एक हलचल तो मचा ही दी है। हालांकि एक मंझे हुए नेता की तरह, उनके मन में कुछ और जुबां पर कुछ दिखलाई पड़ रहा है।
उत्तराखंड राज्य निर्माण से पहले से हरक सिंह रावत चुनावी राजनीति में सक्रिय रहे है। नब्बे के दशक में सबसे पहले पौड़ी विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर वह सीधे कल्याण सिंह सरकार में राज्यमंत्री बन गए थे। इसके बाद, कभी भाजपा, कभी कांग्रेस, कभी बसपा, तो कभी अपनी पार्टी के बैनर तले वह चुनावी राजनीति का हिस्सा बने रहे। कह सकते हैं कि पिछले सात वर्षों को छोड़ दें, तो चुनावी राजनीति में ऐसा कभी नहीं रहा, जबकि हरक सिंह रावत ने उम्मीदवार बनकर भागीदारी न की हो। पिछले सात वर्षों में दो प्रमुख चुनाव सामने आए जिसमें हरक उम्मीदवार नहीं थे। एक, वर्ष 2022 का विधानसभा चुनाव, जिसमें वह खुद नहीं उतरे और उनके कोटे पर कांग्रेस ने उनकी पुत्रवधु अनुकृति गुसाईं को टिकट दिया। लैसडौन का यह चुनाव उनकी बहू जीत नहीं पाई। इसके बाद, इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में हरक हरिद्वारा संसदीय सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक थे, लेकिन उन्हें कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया।
इस बीच, राजनीतिक रूप से हरक का समय अच्छा नहीं रहा है। इसके अलावा, केंद्रीय जांच एजेंसियों की पूछताछ ने भी उनका चैन और सक्रियता को प्रभावित किया है। अब एक बार फिर चुनावी राजनीति में कूदने के लिए हरक तैयार दिख रहे हैं, हालांकि अपने सबसे ताजा बयान में उन्होंने यही कहा है कि वह न तो पहले विधानसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक थे और ना ही आज हैं। हालांकि वह यह भी जोड़ रहे हैं कि पार्टी उनका जैसा भी उपयोग करना चाहेगी, वह उसके लिए तैयार रहेंगे। उनके ताजा बयान की आखिरी ये पंक्तियां ही सारी कहानी खुद कह दे रही है।
दरअसल, वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में हरक सिंह रावत केदारनाथ से लगती हुई रूद्रप्रयाग सीट से चुनाव जीतकर मंत्री बने थे। केदारनाथ सीट रूद्रप्रयाग जिले के अंतर्गत ही आती है और हरक का वहां भी प्रभाव माना जाता है। हरक रूद्रप्रयाग के अलावा पौड़ी, कोटद्वार, लैंसडौन जैसे क्षेत्रों का विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। उत्तराखंड के कुछ एक नेता ही ऐसे है, जो अलग-अलग विधानसभा सीटों से जीते हैं। इन स्थितियों के बीच, हरक के सामने कांग्रेस के भीतर अपने को फिर से स्थापित करने की चुनौती भी है। दोबारा से कांग्रेस में आए हुए उन्हें सिर्फ ढाई-तीन वर्ष ही हो रहे हैं। उन पर उनके समर्थकों का भी दबाव है कि वह अब चुनावी राजनीति से कतई बाहर न रहें। प्रतिष्ठित केदारनाथ सीट पर भाजपा के जीत के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए कांग्रेस का एक वर्ग मानता है कि हरक सिंह से ज्यादा मजबूत कोई दूसरा प्रत्याशी नहीं हो सकता। हालांकि कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत का समर्थक गुट किसी भी कीमत पर हरक को टिकट देने के पक्ष में नहीं है। एक मंझे हुए सियासी खिलाड़ी की तरह हरक ना-ना करते हुए अपनी दावेदारी को आगे बढ़ा रहे है। हाईकमान को अब फैसला करना है।